चाय बना लाती हूँ - कहती माला रसोई जाने केे लिए मुड़ी तो विद्या भी उसके साथ हो ली यह कहते हुए कि मैं भाभी की मदद करती हूँ.
आपके पापा के बारे में सुना था तबसे ही आपसे मिलने का मन हो रहा था. कैसे क्या हो गया था!
चाय की पतीली गैस पर रखते माला भीगी पलकों से सब बताती रही.
बहुत बुरा हुआ लेकिन पीछे रह जाने वालों को हिम्मत रखनी पड़ती है. चाय विद्या ने ही कप में छानी. बिस्किट, नमकीन करीने से प्लेट में रखते हुए माला फिर से सुबक पड़ी.
अपना ख्याल रखो भाभी. कितनी कमजोर हो गई हो.
नन्हीं काया भी तुम्हारे पास है. और देखो , हर समय रोते रहने से कुछ हासिल नहीं है. उलटा सामने वाला भी परेशान हो जाता है. स्वयं स्वस्थ न रहो तो कोई एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. शेखर अकेले कितना और कब तक ध्यान रखेगा..
ठीक कहती हो विद्या. मैं भी सोचती हूँ मगर...
दुख और शर्म की मिली जुली अनुभूति इंसान को कितना दयनीय बना देती है. सोचती हुई विद्या ने माला का हाथ पकड़ कर हौले से दबाया. दर्द को अनकही संवेदना ने चेहरे की स्मित मुस्कुराहट में बदल दिया.
चाय बन गई या कहीं बाहर से ही आर्डर कर दें !
उधर से हल्के ठहाके के साथ कमल की आवाज आई तो दोनों चाय और नाश्ते के साथ बैठक में आ गईं. दोनों के साथ कुछ हल्की- फुल्की इधर उधर की बातों से माला भी सहज हो आई थी.
आज फिर से कक्षा अध्यापिका के बुलावे ने उसे चिंता में डाल दिया था. क्या कहेगी शेखर को, कैसे सामना करेगी उसका. जैसे अपने हाथों पैरों पर नियंत्रण न रहा उसका. साँसें जैसे डूबती सी जातीं थीं. दवाईयों के डब्बे से ब्लड प्रेशर की दवा ढ़ूँढ़ कर ले ली मगर घबराहट पर काबू ही न था. अकेली क्या करेगी वह.
काया को गोद में उठाया और दरवाजे की कुंडी लगाकर पड़ोस के वर्मा जी के घर चली आई. मिसेज वर्मा उसकी मानसिक स्थिति समझती थीं. अपने काम निपटाकर माला के पास आ बैठतीं थी कई बार. उसके गोद से काया को लेकर सुला दिया . माला वहीं सोफे पर पसर गई. अपनी घबराहट पर नियंत्रण न रख पाई और फूट फूट कर रो पड़ी. मिसेज वर्मा ने उसे पानी पिलाया और सिर पर हाथ फेरते बहुत समझाया भी.
दवा से कुछ फायदा नहीं हो रहा तो किसी पीर देवता से झाड़ा लगवा आयें या फिर किसी देवी -देवता को पूछ लेते हैं. अगली गली में वह कन्नू रहता है न , उस पर छाया आती है. कहते हैं सब सच बताता है. कुछ टोना टोटका कर दिया हो किसी ने या कोई देवताओं का दोष हो. या फिर छोटा बाजार चल आयें . वहाँ फूली देवी में माता आती है. झाड़ा भी देती हैं और साथ ही देसी दवा भी . बहुत लोगों को फायदा होते देखा है.
देवी देवता, झाड़ फूँक सुनते माला कुछ चौकन्नी सी हो गई. विज्ञान का ज्ञान उसे इन सब बातों पर विश्वास न करने देता था. मगर काया की तबियत खराब होने पर दवा देते हुए भी राई लूण करना नहीं भूलती थी. या फिर कपड़े की कतरनों से वारते हुए भी नजर उतारने का टोटका कर ही लेती थी. करने को कार्तिक में करवा चौथ पर चंद्रमा के दर्शन कर उसकी पूजा भी करती ही थी जबकि उसे स्कूल में पढ़े गये विज्ञान के सबक अच्छी तरह याद थे कि चंद्रमा एक उपग्रह मात्र ही है . उसकी रोशनी भी उसकी अपनी नहीं. वह सूर्य के प्रकाश से ही चमकता है. मगर कुछेक अवसरों पर दिमाग की खिड़कियों को बंद कर श्रद्धा के वशीभूत हो किये गये शुभ कार्य एक सुकून या प्रसन्नता का भाव उत्पन्न करने में सहायक होते हैं. पारिवारिक और सामाजिक मेलजोल के ये पर्व या व्रत त्योहार रूढ़ि में न बदलने तक एक प्रकार से दैनिक कार्यों जैसे आवश्यक से ही हो जाते हैं और रससिक्त कर सुख और आनंद की अनुभूति देते हैं.
नहीं. अभी इसकी जरूरत नहीं. कुछ आराम मिला है मुझको. यदि आवश्यक हुआ तो हम जरूर चलेंगे वहाँ.
अब तक पैर समेट कर आराम की मुद्रा में बैठती माला संयत हो चली थी. मिसेज वर्मा की बेटी शुभी चाय बना लाई थी. किशोरवय की उनकी पुत्री चपल और हँसमुख होने के साथ सुघड़ भी थी. काया के साथ खेलते बतलाते माहौल को सुखद बनाने में अपनी भूमिका में कुशल लगती थी वह.
अब चलती हूँ मैं. शेखर के आने का समय भी हुआ जा रहा. फिर इसका होमवर्क भी कराना है.
काया की अँगुली पकड़ते वह उठ खड़ी हुई . मगर घर की ओर मुड़ते कदम उसे फिर से चिंता में डाले जाते थे. क्या कहेगी शेखर को वह. क्यों बुलावा आया होगा स्कूल से...
अभी दरवाजे पर लगा ताला खोला भी न था कि पीछे से दौड़ती हाँफती शुभी उसकी साड़ी का पल्ला खींचते उसे जल्दी वापस उसके घर चलने को कहने लगी.
जल्दी चलिये . माँ ने बुलाया है.
कहते उसने काया को गोद में उठा लिया.
अरे! घबराइये मत. कोई आया है घर पर. माँ आपसे मिलवाना चाहती है.
कौन होगा जिससे मिलवाना इतना जरूरी है कि उसके लिए शुभी इस तरह दौड़ती भागती चली आई. काया और शुभी को पीछे छोड़ लंबे डग भरती हुई माला अगले ही पल में मिसेज वर्मा के सामने थी.
आओ माला. कितनी अच्छी बात है न. अभी कुछ ही समय पहले इसकी बात कर रहे थे हम . तुम जैसे ही बाहर निकली इसका आना हुआ. जानती हो न इसको.
हाँ . आपकी गली में बच्चों के साथ खेलते इसे कई बार देखा है. चेहरे से पहचानती हूँ.
अरे. यही तो है कन्नू जिसके बारे में मैं बता रही थी. वही जिस पर देवता की छाया है. आगे के शब्द फुसफुसाते से कहे थे उन्होंने.
जा शुभी. भैया के लिए पानी भर ला लोटे में. एक आसन भी दे जा बिछाने को.
अनमनी सी हो उठी थी माला. यह क्या कर रही हैं मिसेज वर्मा. उसे विश्वास नहीं इन ढ़कोसलों पर. कैसे कहे उसके सामने ही. मगर तब तक शुभी आसन बिछा चुकी थी. उसके सामने पानी का लोटा भी रख दिया गया था.
कैसे भागे यहाँ से सोच रही थी माला . शेखर को पता चला तो कितना गुस्सा होगा. तब तक कन्नू जी आसन पर जम चुके थे. हाथ पैरों को बल खाने की मुद्रा में लाते उसकी आँखें हल्की ललाई लिये थीं. आसन पर बैठे मरोड़े खाते देख मिसेज वर्मा उसके सामने जा बैठीं. इशारे से शुभी को काया को वहाँ से ले जाने को कहते हुए माला का हाथ खींचकर अपने पास ही बैठा लिया.
बोलो महाराज. क्या बात है. क्या कष्ट है!
मिसेज वर्मा की उत्सुकता देखते बनती थी वहीं माला सकुचा रही थी. किस फेर में पड़ गई आज वह.
उधर कन्नू के शरीर के झटके बढ़ते जा रहे थे . नहीं के इशारे में जोर से गरदन हिलाते हुए वह छटपटाता सा दिख रहा था. कुछ कहने के लिए मुँह खोलता कि उढ़के से दरवाजे पर जोर से खट की आवाज आई. वर्मा जी तेजी से घर में घुसे थे.
ये क्या हो रहा है यहाँ...
तत्क्षण ही तेजी से पानी का लोटा उठाकर गटकते कन्नू अपनी गरदन ढ़हाते जमीन पर लोट गया. कुछ ही सेकंड में वापस अपनी स्वाभाविक स्थिति में उठ भी बैठा. सब कुछ इतने कम समय के अंतराल में हुआ कि माला समझ नहीं पाई कि आखिर हुआ क्या था.
कन्नू वर्माजी का अभिवादन करते हुए उठकर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर जम चुका था.
वर्मा जी घर के भीतर चले गये तो मिसेज वर्मा ने धीमे स्वर में माला से कहा... अभी देवता चले गये पर कुछ असर तो रहेगा. पूछती हूँ तुम्हारी समस्या के बारे में.
इनके पिताजी के देहांत के बाद इसकी तबियत ठीक नहीं रहती. पेट में अजीब सा दर्द बताती है. खाना पचता नहीं . दिन पर दिन कमजोर हुई जा रही. दवा लेते दो तीन महीने हुए. कुछ असर नहीं हो रहा. कहीं पैर तो नहीं पड़ गया इनका कहीं.
अब तक मिसेज वर्मा और माला भी कुर्सियों पर बैठ चुकी थीं.
हम्म्म्... पिता जी के जाने के बाद.... एक जोर की साँस ली कन्नू ने और रूआँसी सी हुई माला की ओर देखा.
क्यों रोती हो इतना. किसके लिए रो रहे. क्या समझते हो . तुम अमर हो. ये जीवन है. इसका क्या भरोसा. सोचो कल ही तुम्हें कुछ हो गया तो.... तुम्हारा इस समय का रोना क्या काम आयेगा.
कान के पर्दे पर जैसे किसी तीक्ष्ण वस्तु का वार हुआ. भय से सिहर उठी माला. पाँच वर्ष की नन्ही सी काया , अकेले पड़ता शेखर... इतनी सी देर में क्या- क्या नहीं सोच लिया उसने.
मैं चलती हूँ. शेखर परेशान होंगे.
काया को गोद में उठाये माला दौड़ती सी घर आ पहुँची. शेखर घर आ चुका था. स्कूटर भीतर रखने के लिए मेनगेट पूरा खोलता हुआ रूक गया.
कहाँ गई थीं. अब क्या हो गया.
उसके मुरझाये हतप्रभ चेहरे को देखते कहा उसने.
कुछ नहीं. काँपते हाथों से दरवाजे का ताला खोला माला ने. काया को गोद में लिए हल्की सिसकियों से शुरू हुई उसकी रूलाई जल्दी ही चीख कर रोने में बदल चुकी थी. शेखर और काया को अंक में समेटे कुछ देर फूट फूट कर रोती रही माला. होठों में ही अस्पष्ट शब्दों में बुदबुदाती. काया के उलझे बालों की लटें, तुड़ी मुड़ी सी यूनिफार्म को अँगुलियों से सही करते हुए . वह इतनी निर्दयी कब और कैसे हुई. पिता का जाना उसे इतना व्यथित कर रहा कि उसने पाँच वर्ष की नन्हीं काया के बारे में भी नहीं सोचा. अपने आपको इतना कमजोर कैसे कर सकती थी वह. उसके और काया के अच्छे भविष्य के लिए खटते शेखर के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती थी वह. अपनी जिम्मेदारियों से कैसे भाग सकती थी. क्या उसका अपना दुख इस दूधमुंही काया के दुख से भी बढ़कर था...
उसके बालों में अँगुलियाँ फेरते शेखर ने उसे जी भर रो लेने दिया.
तुम बहुत साहसी हो और हम दोनों का संबल भी. शेखर समझा रहा था और माला कल के नये सूर्य के साथ अपने भीतर ऊर्जा भरते हुए जिंदगी की ओर बढ़ रही थी. दर्द वहीं था अभी, अफसोस भी परंतु उसके साथ अपने उत्तरदायित्व को अच्छी तरह निभाने,का हौसला भी...।
कितनी दवाईयाँ, कितनी किताबें और कितने मनोवैज्ञानिक नहीं समझा सकते थे जिसे एक अल्पशिक्षित अज्ञानी ने अनजाने में समझा दिया था उसे। देवी देवता के आने - जाने का पता नहीं और न कभी वह इस पर विश्वास भी कर पायेगी मगर जीवन मजबूती से चलते रहने का नाम है, दुर्लभ है . यह जरूर समझ चुकी थी माला. कमर कस कर आने वाली चुनौतियों से लड़ने को तैयार.